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दिनांक 26—2—2010 को प्रणव दा द्वारा बजट मे कोर्ट कचेहरी के लिए 5 हजार करोड रूपये का प्राविधान इस लिये किया गया है कि वषों पुराने एवं निरर्थक मुकदमों का त्वरित निस्तारण किया जा सके। यह भारत सरकार की एक अच्छी एवं सराहनीय शुरुआत है। एक आकलन के अनुसार भारत वर्ष मे विभिन्न न्यायालयों मे लगभग 3 करोड मुकदमे लम्बित हैं। यदि यह मान लिया जाय कि 3 करोड मुकदमों मे से 1 करोड मुकदमे व्यक्ति और राज्य के वीच है तब भी लगभग 5 करोड परिवार एवं लगभग 25 करोड आबादी मुकदमेबाजी से प्रभावित हो है। प्राय: देखा जाता है किे जो परिवार मुकदमेबाजी मे फस जाता है उसका विकास रुक जाता है। सरकार द्वारा जो निति बनाई गई है उसके अनुसार मुख्य रुप से दो विन्दुओं पर काम किया जाना है। प्रथमत: ऐसे वाद जो निर्थक प्रवृति के हैं उनकी पहचान कर उन्हे समाप्त किया जाना तथा दूसरा कार्य समान प्रवृति के मुकदमों को एकस्थ किया जाना। निर्थक प्रवृति के मुकदमे के वारे मे मैं आपके एक वाक्या सुनाना चाहूंगा। मेरे एक मित्र है जो जुडिसियल मजिस्टेट के पद पर एक जनपद मे तैनात है। उन्होने बताया कि एक वार उनके सामने एक ऐसा वाद सुनवाई के लिये आया जो विगत 14 वषों से उस न्यायालय मे चल रहा था। उक्त वाद एक महिला ने अपने पति के खिलाफ उत्पीडन के विरुद्ध दायर किया था। सुनवाई के दिन पति और पत्नी दोनो साथ न्यायालय मे आये साथ मे दो छोटे बच्चे भी थे। जब जज साहब ने महिला से मुकदमा दायर किये जाने का कारण पूछा तो उसने बताया कि जब वह गौने मे अपने पति के घर आयी तो किसी बात को लेकर पति और पत्नी मे वाद विवाद हो गया। नाराज होकर पती ने हसिये से उसके बाल काट दिये। इसलिये वह पति से नाराज होकर मैके चली गई और उसकी मां ने वकील से सम्पर्क कर उक्त वाद दायर करा दिया। इस दौरान उसके तथा उसके पति के वीच सुलह हो गई। दोनो साथ साथ रह रहे है दोनेा के चार बच्चे भी है लेकिन उक्त मुकदमे का निस्तारण नही हो सका। इस पर जज साहब ने कहा कि जब आप दोनो मे कोई विवाद नही है तथा आप दोनो खुशी खुशी साथ रह रहे हैं तो आप दोनो समझौता क्यों नही कर लेते। तो महिला कहा कि क्या ऐसा हो सकता है तो जज साहब ने कहा कि हां ऐसा हो सकता है उन्होंने कहा कि आप जाकर दो रुपये का टिकट ले आओ। दोनो पति पत्नी कोर्ट से वाहर निकले और वकील के पास पहुचे वकील ने महिला से कहा कि जज साहब उसे जेल भेजना चाहते है। जैसे ही आप अपना मुकदमा वापस लेगी वह तुम्हे जेल भेज देगें। अब घबराई हुई महिला फिर जज साहब के पास पहुची उसने जज साहब से पूछा कि अगर वह अपना मुकदमा वापस लेती है तो वह उसे जेल तो नही भेजेगें। जज साहब के समझ मे आ गया माजरा क्या है। उन्होने सरकारी वकील से सुलहनामा तैयार करने को कहा और अपने पास से टिकट मंगवाकर उन दोनो के बीच समझौता कराकर मुकदमे को निर्णीत कर दिया। उन्होने बताया कि मुकदमे का निर्णय हो जाने के बाद भी पति तीन माह तक मुकदमे की जानकारी लेने कचेहरी आया करता था। इसके अतिरिक्त उन्होने बताया कि आमतौर पर सिविल से संबधित ऐसे वाद न्यायलयों मे आते हैं जिनमे चकबन्दी के दौरान किसी के खेत मे उसके पूर्वजों द्वारा यदि कोई पेड लगाया गया था और चकबन्दी के दौरान उस पेड की मालियत लगा कर उसे खेत के मालिक को दे दी गई फिर भी वह मुकदमा दायर कर देता है कि वह पेड उसे इसलिये मिलना चाहिये क्योकि उस पेड को उसके पूर्वजों ने लगाया था। य पि ऐसे वाद न्यायालयों द्वारा तत्काल निर्णित हो जाने चाहिए लेकिन वकीलों के असहयोग के कारण ऐसे वाद वर्षो न्यायालयों मे लम्बित रहते है। आशा है कि ऐसे निरथर्क वादों का निस्तारण हो सकेगा।
संसद को इस तरह के मुकदमो के त्वरित निस्तारण के लिये कानून बनाना होगा।
विगत कई महीनों से इस आशय की खबरे आ रही है कि कशाब द्वारा वार वार अपना वयान बदला जा रहा है। ऐसा क्यों हैं। ऐसा इसलिये है अन्य वैज्ञानिक तरीके से प्राप्त साक्ष्य न्यायालय मे मान्य नही है। सामान्य परिस्थिति मे गीता पर हाथ रखकर दिया गया झूठा बयान मान्य है लेकिन वैज्ञानिक तरीको से सिद्ध डी0एन0ए0 फिंगर प्रिंटिंग ब्रेन मैपिंग तथा नार्को टेस्ट के माध्यम से प्राप्त साक्ष्य मान्य नही है। संसद द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम मे भी संशोधन किये जाने की आवश्यकता है।
प्राय: देखा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध किसी व्यक्ति द्वारा कोई वाद दायर कर दिया जाता है तो उस वाद पर नोटिस पर नोटिस जारी होने के वावजूद वह व्यक्ति इस लिये न्यायालय मे हाजिर नही होता कि कही जज साहब उसे जेल न भेज दें। यदि किसी के विरुद्ध कोई वाद दायर है तो सबसे पहले संबन्धित व्यक्ति न्यायालय मे जाकर जमानत कराये फिर मुकदमा शुरु होगा। अब यह जज के विवेक पर है कि वह उन्हे जमानत दे या जेल भेजे। मुकदमे का क्या निर्णय होगा वह बाद मे देखा जायेगा। इस कारण भी मुकदमों के निस्तारण मे समय लगता है। न्यायालयों मे मुकदमों के निस्तारण की प्रक्रिया काफी पेचीदी है इसके सरलीकरण की आवश्यकता है।
अक्सर कहा जाता है कि न्यायालयों का मानना है कि चाहे सौ अपराधी छूट जायें लेकिन एक निर्दोष को सजा नही होनी चाहिए। न्यायालयों को अपने इस द्ष्टिकोण मे परिवर्तन करना होगा। क्योकि एक दोषी छूटकर सैकडो निर्दोषों की जान लेता है इसलिए यदि सौ दोषियों को सजा देने के दौरान अगर एकाध निर्दोष भी दंडित हो जाता है तो समाज को इसके लिये तैयार रहना होगा।
सरकार को आर्थिक अपराधियों के विरुद्ध कठोर दण्ड का प्राविधान करना होगा। खीरा चोरी और हीरा चोरी की एक सजा का प्राविधान नही चलेगा। आर्थिक अपराधियों के लिये भारतीय साक्ष्य अधिनियम मे भी संशोधन किये जाने की आवश्यकता है। इस अपराधियों को अपने वचाव मे स्वयं साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्राविधान होना चाहिए।
आज न्यायालयो मे कर्मचारियों के सेवा से संबन्धित कई लाख मुकदमे लम्बित है। इन सेवा संबन्धी मामलों के निस्तारण के लिये न्यायिक अधिकरण बनाये जा सकते है। आज सचिवालयों मे कई वरिष्ठ अधिकारी ऐसे पदों पर बैठे हैं जहां उनके लिये कोई कार्य नही है। ऐसे अधिकारियों को इन न्यायिक अधिकरणों मे तैनात कर सेवा संबन्धी मामलों के निस्तारण कराया जा सकता है। यह भी सम्भव है कि संविधान की धारा 226 के अंर्तगत वादों की प्राथमिक सुनवाई उच्च न्यायालयों मे करने के बाद विस्त़त सुनवाई के लिए उसे इन न्यायिक अधिकरणों को हस्तगत कर दिये जायं । इससे उच्च न्यायालयों का बोझ भी घटेगा और मामलें का निस्तरण भी समय से हो सकेगा।
व्यक्ति की सम़द्धि इस बात पर निर्भर नही करती कि आप कितना कमाते है बल्कि इस बात पर करती है कि आप कितना बचाते हैं। मुकदमेबाजी अनावश्यक खर्च का एक ऐसा माध्यम है जिसे कम किया जा सकता है।
यदि हम ऐसा करने मे सफल रहे तो शायद कुछ भला हो सके।
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