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आये दिन खबर छपती है कि जिलाधिकारी के निरीक्षण मे अमुक अस्पताल मे डाक्टर डयूटी से अनुपस्थित मिले फला असपताल मे डाक्टर लम्बे समय से डयूटी से अनुपस्थित है। आज मुख्य चिकित्साधिकारी ने झोला छाप डाक्टर के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई फला डाक्टर ने मरीजों को अस्पताल से बाहर की दवाएं लिखी जिससे मरीज और डाक्टर मे तकरार आदि आदि। मै सोचता हू कि ऐसा क्यों है और इसका क्या इलाज हो सकता है।
एक डाक्टर को तैयार करने मे देश को कई लाख रूपये खर्च करने पडते है साथ ही डाक्टर बनने मे उस छात्र का 9 से 10 साल का समय भी खर्च होता है फिर एम0डी0 और एम0एस0 की डिग्री लेने के बाद उसके ज्ञान का सदुपयोग करना क्या समाज का दायित्व नही है। सरकार ने अग्रेजों के जमाने का एक नियम लागू कर रखा है कि जो डाक्टर सरकारी अस्पतालों मे तैनात होगे उन्हे प्राइवेट प्रैक्टिस करने की छूट नही होगी। मतलब तैनाती के बाद वे जब तक अस्पताल मे है तब तक उनकी सेवाओं का लोगों को लाभ मिलेगा उसके बाद उनके ज्ञान का समाज को कोई लाभ नही मिलने वाला। एक ऐसा समाज जो अपने मानव संसाधनों के उचित उपयोग को बाधित करता हो वह विकस कैसे करेगा। रही बात प्राइवेट प्रेक्टिस की तो वह वैध या अवैध तरीके से जारी है। यदि हम उन्हे वैध तरीके से प्रैक्टिस की अनुमति देते तो शायद वे समाज के लिये ज्यादा उपयोगी होते वनिष्पति इसके कि वे छिपे तौर पर प्राइवेट प्रैक्टिस करें। एक डाक्टर के माता पिता काफी पैसा खर्च कर उसे डाक्टर बनाते है उनको भी अपने बेटे से पैसे कमाने की अपेक्षा रहती है ऐसी स्थिति मे उससे यह अपेक्षा करना कि 10 वर्ष की पढाई के बाद वह केवल समाज सेवा करेगा वेमानी है। जब तक उसे उसकी अपेक्षा के अनुसार पारिश्रमिक नही मिलेगा वह पूरे मनोयोग से कार्य करेगा सम्भव ही नही है। अब प्रश्न उठता है कि डाक्टरी पेशा तो समाज की सेवा के लिये है फिर इसे पैसे से जोडकर क्यो देखा जाय तो एक बात ध्यान रखिये। समाज को टुकडो मे नही देखा जा सकता है। उसी डाक्टर का एक भाई जो किसी प्रशासनिक पद पर है वैध और अवैध तरीके से धन कमा रहा है समाज उससे समाज सेवा की अपेक्षा नही करता और डाक्टर या शिक्षक से ही हमेशा देश और समाज सेवा की अपेक्षा क्यों की जाती है। आदर्शवाद कहने के लिए ठीक है लेकिन वास्तव मे इसका व्यवहारिक जीवन मे कोई उपयोग नही है। इसलिये मेरा मानना है कि चिकित्सकों को निजी नर्सिग होम स्थापित करने हेतु प्रेरित कर उनकी शिक्षा का समाज को अधिकतम लाभ दिलाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए साथ ही जब वे हास्पिटल मे मरीजों को देख रहे हो तो उन्हे प्रति मरीज न्यूनतम प्रोत्साहन राशि भी दिये जाने का प्राविधान किया जाना चाहिये। इससे न केवल उनकी उपस्थितिबढेगीबल्कि सेवा की गुणवता भी सुधरेगी। समाज को उसके ज्ञान का पूरा लाभ मिलेगा। जिस समय तक डाक्टर सरकारी अस्पताल मे है पूरे मनोयोग से काम करे उसके बाद वह क्या करता है इस पर सरकार को प्रतिबन्ध नही लगाना चाहिए।
दूसरा मुददा झोला छाप डाक्टरों पर नियन्त्रण का है। यह एक स्थापित सत्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों मे चिक्त्सिकीय सुविधा उपलब्ध कराने का गुरूतर दायित्व आज भी इन्ही झोलाछाप डाक्टरों पर है। आज भी बडे बडे कस्बों मे प्रशिक्षित डाक्टर उपलब्ध नही हैं। इन्हे आम तौर पर चिकित्सा का वेसिक ज्ञान होता है। आवश्यकता पडने पर हर समय इन्ही की सेवाये ग्रामीणें को उपलब्ध होती है। यह भी सही है कि अल्प ज्ञान के कारण कई वार इनके द्वारा केश विगड भी जाता है लेकिन यह भी सही है कि अधिकांश ग्रामीण महगी सरकारी चिकित्सा का लाभ लेने मे सक्षम नही है। सामान्य वीमारियों के लिये विशेषज्ञ डाक्टरों के पास जाने उनके द्वारा लिखे गये टेस्ट को कराने तथा दवा कराने की क्षमता अधिकांश ग्रामीणों मे नही है। इसलिये मेरा सुझाव है कि इन तथाकथित झोला छाप डाक्टरों को एक न्यूनतम प्रशिक्षण देकर एक डिग्री देकर एक निश्चित सीमा तक चिकित्सा सुविधा प्रदान करने की अनुमति दी जानी चाहिए। केवल उनके विरूद्ध अभियान चलाकर कुछ लोगों को दण्डित कर देने से यह व्यवस्था खत्म होने वाली नही है क्योंकि यह समय की मांग है और उसे हमे स्वीकार करना होगा।
तीसरा मुददा डाक्टरों द्वारा अस्पतालों मे वाहर से दवायें लिखे जाने की है तो इस सम्बन्ध मे यह विचारणीय है कि आज जितने भी डाक्टर अपना अस्पताल खोलकर बैठे है वे केवल दवायें लिखते है जिसकी वे 100 रूपये से लेकर 500 रूपये और हजार रूपये फीस लेते है। अमूमन एक शहर मे जितने प्राइवेट डाक्टर है उससे अधिक डाक्टर विभिन्न सरकारी अस्पतालों मे तैनात है। यदि इन डाक्टरों को प्राइवेट डाक्टर की भाति दवा लिखने की अनुमति मिल जाय तो प्राइवेट डाक्टरों की प्रैक्टिस बन्द हो जायेगी। आमतौर पर अस्पतालों मे मिलने वाली दवाएं इतने निम्न कोटि की होती है कि उनसे गम्भीर बीमारियों का इलाज सम्भव नही है अव डाक्टर के पास दो ही रास्ते होते है या तो वह मरीज को मरने के लिये छोड दे या वाहर की दवा लिखे ऐसी स्थिति मे एक जिम्मेदार डाक्टर कभी मरीज को मरने के लिये नही छोड सकता। लेकिन जब वह बाहर की दवा लिखता है तो सरकारी तंत्र मे हाय तौबा मच जाता है। सरकारी तंत्र और समाज को यह स्वीकार करना होगा कि जो लोग वाहर से दवा लिखवाकर दवा लेना चाहते है उन्हे वाहर से दवा लेने की अनुमति मिलनी चाहिये और जो लोग अस्पताल से दवा लेना चाहते है उन्हे अस्पताल से दवा की व्यवस्था की जानी चाहिए। केवल असपताल की दवा के भरोसे मरीज को नही छोडा जाना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो शायद स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता मे आशातीत सुधार हो सकेगा अन्यथा आदर्शवाद की स्थिति मे जहा हम है वही पडे रहेगे। इसलिये इस क्रान्तिकारी कदम को स्वीकार करने के लिये किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो समाज मे व्याप्त धारणा के विरूद्ध कार्य कर सके और व्यवस्था मे आवश्यक परिवर्तन कर सके। कार्य जो करेगा प्रारम्भ मे तंत्र उसे इडियट कहेगा। और यह कार्य एक तथा कथित इडियट ही कर सकता है।
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