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विगत एक अप्रैल से देश मे शिक्षा का कानून लागू हो गया है। इस कानून के मुताविक अब पंच से चौदह वर्ष के बच्चों का यह अधिकार होगा कि राज्य उन्हे नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें। इस अधिनियम के लागू करने मे आगामी पांच वर्षों मे कुल एक लाख इकहत्तर हजार करोड रूपये व्यय आने का अनुमान है। इस धनराशि का 55 प्रतशित केन्द्र सरकार तथा 45 प्रतशित राज्य सरकारों को व्यय करना है। अधिनियम के लागू होते ही कई राज्य सरकारों विशेषकर ऐसी राज्य सरकारें जहां कांग्रेस की सरकार नही है द्वारा अपेक्षित उत्साह नही दिखाया जा रहा है कुछ राज्य सरकारें जैसे उत्तर प्रदेश की सरकार ने तो केन्द्र सरकार से स्पष्ट अनुरोध किया है कि उसके राज्य की माली हालत एैसी नही है कि वह इस अधिनियम के क्रियान्वयन पर आने वाले आठ हजार करोड की धनराशि अपने संसाधनों से व्यय कर सके। अत: इस अधिनियम को लागू करने के लिये आवश्यक सम्पूर्ण धनराशि की व्यवस्था केन्द्र सरकार करे।
प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव मे केन्द्र सरकार द्वारा लागू किया जा रहा शिक्षा का अधिकार कानून अपने वास्तविक उददेश्य मे सफल होगा। साथ ही इसे और प्रभावी बनाने के लिये क्या अतिरिक्त प्रयास और ढाचागत सुधार किये जाने की जरूरत है।
आम तौर पर प्राथमिक और अपर प्राथमिक स्तर पर यह शिकायत होती है कि प्राथमिक विद्यालयों मे अपेक्षित संख्या मे शिक्षक नही है कुछ विद्यालय एकल है तो कुछ विद्यालयों मे शिक्षक ही नही तैनात है। कई वर्ष पूर्व एक खबर छपी थी कि जनपद श्रावस्ती के विकास खण्ड सिरसिया मे साठ से अधिक विद्यालय शिक्षको की कमी के कारण लम्बे समय से बन्द चल रहे है। कुछ विद्यालयों मे पशु वाधे जा रहे तथा कुछ विद्यालयों मे अनिश्चित काल से ताला पडा है। विद्यालय भवन वन जाने के वाद शिक्षकों की कमी के कारण विद्यालयों का बन्द रहना एक कारण है विद्यालयों मे तैनात शिक्षकों का गैर शिक्षण कार्य मे उपयोग एक दूसरा कारण है जिससे शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा है। शिक्षको को जनगणना से लेकर पशु गणना तक ग्राम पंचायतें के चुनाव से लेकर लोकसभा के चुनाव सभी मे डयूटी देनी पडती है। ऐसे विद्यायल जो एकल है शिक्षक के गैर शिक्षण कार्य पर चले जाने से विद्यालय बन्द हो जाते हैं। सर्वशिक्षा अभियान के अन्तरगत शिक्षकों को कई गैर शिक्षण कार्य जेसै स्कूल भवनों का निर्माण एनपी0आर0सी0 और वी0आर0सी0 के रूप मे तैनाती तथा अन्य प्रशासनिक दायित्व भी दे दिया गया है जिसके कारण कई शिक्षक शिक्षण कार्य के लिये उपलब्ध नही हैं। कुछ जगहों पर यह भी शिकायत मिल रही है कि विद्यालय मे तैनात शिक्षक विद्यालय नही आते और अपने स्थान पर किसी अन्य से शिक्षण कार्य कराते है। यह भी पाया जा रहा है कि जब तक शिक्षको की तैनाती विभाग मे नही होती है तब तक वे किसी भी स्थान पर नौकरी करने के लिये तैयार रहते है और तैनाती के बाद नाना प्रकार के दवाव डालकर शहर के पास के विद्यालयों मे तैनाती कराने को बेचैन रहते है परिणाम स्वरूप शहर के पास के स्कूलो मे 50 छात्र पर पांच शिक्षक तैनात हो जाते है और सुदूर ग्रामों मे 200 छात्रों पर दो शिक्षक भी नही उपलब्ध होते है। यह सब ऐसी समस्यायें है जिनका निराकरण किया जाना आवश्यक है इनके निराकरण के विना शिक्षा का अधिनियम लागू किया जाना वेनामी होगा। प्रश्न उठता है इसे लागू कैसे किया जाय।
इसके सम्बन्ध मे मेरे कुछ सुक्षाव है जिससे इस व्यवस्था मे वांछित सुधार किया जाना सम्भव हो सकेगा। देश प्रदेश मे शिक्षा के विस्तार से काफी संख्या मे नौजवान बेरोजगार है ये नौजवान गांव मुहल्लों मे खाली घूमते है इनमे से कुछ नौजवान लखनउ इलाहाबाद मे आई0ए0एस0 एवं पी0सी0एस0 की परीक्षाओं मे प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षा पास करने के वाद नौकरी न मिलने के कारण बेरोजगार हैं। कुछ नौजवान ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन करके बेकार वैठे है। कुछ के शैक्षिक ज्ञान का स्तर एवं शैक्षणिक विधा का ज्ञान विद्यालयों मे तैनात शिक्षको से भी ज्यादा है। विगत वर्षो मे यह देखा गया है कि शिक्षा का गुरूतर दायित्व शिक्षा मित्रो द्वारा निभाया जा रहा है।वास्तव मे शिक्षा मित्र ही इस समय विद्यालयों मे शिक्षण कार्य कर रहे हैं। वेरोजगार युवाओं को समूह बनाकर बन्द पडे या एकल विद्यालयों को इन युवकों को 10 वर्ष या 15 वर्षो के लिये पटटे पर आबंटित किये जा सकते हैं। इन युवाओं को 3000 प्रति माह का मानदेय देने के बाद इन्हे विद्यालय मे पढने वाले छात्रों से फीस लेने की छूट दी जानी चाहिए। इनके द्वारा एकत्र की गई फीस के समतुल्य प्रोत्साहन की धनराशि दिये जाने का प्राविधान किया जाना चाहिये । स्कूल से पास होने वाले विद्यार्थियों की गुणवत्ता के अनुसार स्कूल को अतिरिक्त प्रोत्साहन की धनराशि दिये जाने का प्राविधान भी किया जाना चाहियें। प्राय:स्कूलों मे अध्यापकों को वेतन का निर्धारण उनके कार्यो के आधार पर न होकर उनके सेवाकाल के आधार पर किया जाता है। स्थाई शिक्षकों के वेतन का निर्धारण उनके कार्यों के आधार पर किया जाना चाहिये। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को भी अपनी फीस वसूल करने की छूट दी जानी चाहिये। उनके द्वारा वसूल की गई फीस के समतुल्य वेतन का निर्धारण किया जाना चाहिये। यदि किसी शिक्षक द्वारा निरन्तर असन्तोषजनक प्रगति दी जाती है तो उसकी सेवायें समाप्त कर दिये जाने का प्राविधान किया जाना चाहिये।
प्रदेश मे सिटी मान्टेसरी लखनउ पब्लिक स्कूल महानगर ब्वायज तथा महानगर गर्ल्स एवं रानी लक्ष्मीबाई वीरेन्द्र स्वरूप एजूकेशनल सेन्टर जैसे कई प्रतिष्ठित समूह कार्यरत है जिनको शिक्षण कार्य मे विशेषज्ञता प्राप्त है इन समूहों को प्रदेश के अन्य भागों मे भी अपनी शाखायें खोलने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहियें। इस कार्य के लिये इन्हे विशेष प्रोत्साहन दिया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों मे ऐसे स्वयं सेवी लोग एवं संस्थाएं जो प्राथमिक अपर प्राथमिक या उच्च प्राथमिक विद्यालय स्थापित करना चाहते है उन्हे सरकार की ओर से कुल लागत का 50 प्रतिशत या 25 प्रतिशत जैसा उचित समझे धनराशि व्यक्तियो एवं संस्थाओं को दी जा सकती है। जहां तक हो सके निजी क्षेत्र को शिक्षण कार्य मे अधिकतम भागीदार बनाया जाना चाहिये क्योकि यह प्रयोग शहरी क्षेत्रों मे सफल रहा है आज शहरी क्षेत्र मे अधिकतर शिक्षा की जिम्मेदारी निजी शिक्षण संस्थाओं पर है और वे इस दायित्व का सफलतापूर्वक निवर्हन कर रही है। लेकिन मेरे द्वारा जो सुझाव दिये जा रहे हैं उसको लागू करना किसी आम नेता के वश की बात नही है। इसको कोई राजनैतिक इडियट ही लागू कर सकता है। इसलिये देश को राजनैतिक इडियट की जरूरत है।
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