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भारत वर्ष मे आदिकाल से पंचायती राज संस्थाओं का उल्लेख पाया जाता है। चोल शासकों के शासन काल मे समितियों के माध्यम से शासन चलाये जाने का उल्लेख पाया जाता है। इससे पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता के काल मे भी समितियों के अस्तित्व का उल्लेख पाया जाता है। मध्यकाल मे भी ग्रामीण स्थानीय स्वशासन का उल्लेख पाया जाता है। स्वतंत्रता संग्राम के समय महात्मा गांधी जी ने स्थानीय स्वशासन की परिकल्पना की थी । देश की स्वतंत्रता के बाद बनायें गये संविधान के नीति निर्देशक तत्वों मे भी स्थानीय स्वशासन की परिकल्पना की गई लेकिन इस परिकल्पना को मूर्तरूप 73वें और चौहत्तरवें संविधान संशोधन के बाद दिया जा सका। 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज संस्थओं को संवैधानिक स्वरूप प्रदान किया जा सका। लेकिन इस व्यवस्था के शुरूआत किये जाने के वास्तविक उददेश्य मे स्पष्टता न हो पाने के कारण ये संस्थाएं अपनी उपयोगिता सिद्ध करने मे असफल हो रही है। ल्रगभग एक वर्ष पूर्व भारत सरकार के पंचायती राज मंत्री जी फैजाबाद आये थे उन्होने बताया कि पंचायती राज व्यवस्था के लागू होने से भारी संख्या मे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अन्य पिछडे वर्गों और महिलाओं को पंचायतों मे प्रतिनधित्व मिला। उन्होने सरकार के इस कदम को सामाजिक न्याय के दिशा मे सरकार का एक महत्वपूर्ण कदम बताया। इसके विपरीत 1999 मे तत्कालीन राज्य सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं को विकास के माध्यम के रूप मे चुना और अनेक वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार दिये। कालान्तर मे ये पंचायती राज संस्थाये अपनी उपयोगिता सिद्ध करने मे सफल नही हो पा रही है ऐसा मेरा मानना है।
पंचायती राज व्यवस्था का उददेश्यों की स्पष्टता न होने और दोनों उददेश्यों के विरोधाभासी होने के कारण अपेक्षित सफलता नही मिल पा रही है। इस सम्बन्ध मे एक एक विषय पर क्रम से विश्लेषण किया जाना उचित होगा। पंचायती राज व्यवस्था एक सामाजिक न्याय का माध्यम. इस विन्दु पर विचार करने पर आप पायेगे कि पंचायतों मे अनुसूचित वर्ग अनुसूचित जन जाति अन्य पिछडा वर्ग और महिलाओं को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये संविधान मे इन वर्गो को आरक्षण प्रदान किया गया है। आरक्षण के परिणाम स्वरूप इन वर्गों के लोगों को पंचायतों मे अपेक्षित प्रतिनिधित्व तो मिल गया लेकिन ये जन प्रतिनिधि स्वावलम्बी नही बन सके। आज भी इन वर्गों के प्रतिनिधि किसी न किसी पर आश्रित है परिणाम स्वरूप ग्राम प्रधान के रूप मे यदि किसी घर मे महिला प्रधान है तो उसके घर के उसके पति देवर ससुर जेष्ठ सभी प्रधानी कर रहे है शिवाय चुने हुए प्रधान के। इसी प्रकार अधिकांश प्रकरणों मे अनुसूचित जाति या अनुसूचित जन जाति के ग्राम प्रधान गांव के किसी दवंग परिवार के संरक्षण मे चुने जाते है और उनके संरक्षक प्रधानी करते है वास्तविक प्रधान को यह पता ही नही होता कि प्रधानी क्या होती है। ये गैर पदेन जनप्रतिनिधि चुने हुए जनप्रतिनिधियों के पदों का दुरुपयोग करते है परिणाम स्वरूप आरक्षण का वास्तविक उददेश्य की बलि चढ जाती है। साथ ही विकास का जो सपना देखा गया है वह पूरा नही होता है।
विकास के लिये व्यक्ति के अन्दर विकास की सोच होनी चाहिये। आज चाहे वह ग्राम पंचायत का प्रधान हो क्षेत्र पंचायत का प्रमुख हो या जिला पंचायत का अध्यक्ष सभी के अन्दर विकास की सोच का अभाव है। विकास के लिये एक व्यवस्थित बैचारिक आधार होना चाहिए जिसका पंचायती राज संस्थाओं मे पूर्णतया अभाव है। अधिक आहरण वितरण अधिकारी होने के कारण उन पर प्रभावी नियंत्रण किया जाना सम्भव नही हो पा रहा है। प्रति पांच वर्ष पर चुनाव; चुनाव मे व्यय होने वाले धन की व्यवस्था करना ; प्रत्येक स्तर पर विभिन्न स्तर के जन प्रतिनिधि ; संस्थाओं का उनके मुखिया पर प्रभावी नियत्रण का अभाव आदि इन संस्थाओं को भ्रष्ट बनाने के लिये उत्तरदायी हैं। पंचायतों का छोटा आकार जिस कारण पूरे वर्ष मे बहुत कम धनराशि की प्राप्ति; जनप्रतिनिधियों की महात्वाकांक्षां; पंचायत स्तर पर लेखों के रखरखाव की प्रभावी व्यवस्था का अभाव आदि पंचायती राज व्यवस्था की उपयोगिता को कम कर रही हैं। यद्यपि एक कार्यदायी संस्था के रूप मे ग्राम पंचायतों का कार्य आंशिक रूप से सन्तोषजनक रहा है लेकिन नियामक संस्था के रूप मे इनका कार्य निराशाजनक रहा है।
पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावी बनानें के लिये आवश्यक है कि ग्राम पंचायतों का आकार बढाया जाय; इन्हे कम से कम 5 हजार की जनसंख्या पर गठित किया जाय। ग्राम पंचायतों को इलेक्टानिक टांसफर के माध्यम से धनराशि हस्तानतरित की जाय; ग्राम पंचायतों को प्रति ग्राम पंचायत कम से कम कामर्श और एकाउन्ट के ज्ञान वाला कम्प्यूटर आपरेटर दिया जाय। पंचायतों का प्रयोग योजनाओं मे सामाजिक प्रतिभाग बढाने के उददेश्य से किया जाय; यदि हो सके तो पंचायतों को कार्यदायी संस्था के दायित्व से मुक्त कर दिया जाय। और सबसे महत्वपूर्ण कि ग्राम पंचायतें सामाजिक न्याय का साधन है या विकास का माध्यम इस उददेश्य मे स्पष्टता होनी चाहिए।
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