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भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का एक कथन काफी चर्चित हुआ। भारत के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यको का है। प्रधानमंत्री जी की इस बात का निहितार्थ कुछ भी हो लेकिन सीधी सीधी बात जो मेरे समक्ष मे आयी वह यह कि भारत सरकार देश के अल्पसंख्यकों को इस स्थिति मे पा रही है कि उसके विकास के लिये भारत के संसाधनों का प्राथमिकता के आधार पर आबंटित किये जाने की जरूरत है। ऐसा क्यों है? संसाधनों के आबंटन मे प्राथमिकता देने का मापदंण्ड क्या है? भारत राष्ट राज्य के संसाधनों का आबंटन का आधार क्या है? मै समक्षती हूं कि किसी वर्ग के सामाजिक स्तर का निर्धारण उसके आर्थिक शैक्षिक तथा राजनैतिक स्तर से होता है। जो वर्ग आर्थिक रूप से जितना अधिक समृद्ध होगा उसका सामाजिक स्तर उतना ही उचा होगा। इसी प्रकार शैक्षिक तथा राजनैतिक स्तर भी समाजिक स्तर के निर्धारण मे सहायक है। आमतौर पर अर्थिक संसाधन ही किसी समाज के शैक्षिक और राजनैतिक उन्नयन मे सहायक होते है। जो वर्ग आर्थिक रूप से जितना समृद्ध होगा वही शिक्षा और राजनीति मे भी प्रगति कर सकेगा।जहां तक भारत राष्ट राज्य के संसाधनों का सवाल है तो ये संसाधन मूलत: आर्थिक ही हैं।
अब प्रश्न उठता है कि इन संसाधनों के आबंटन मे यदि अल्पसंख्यकों को प्राथमिकता देनी है तो सबसे पहले यह निर्धारित करना होगा कि अल्पसंख्यक आर्थिक रूप से अन्य वर्गों से ज्यादा गरीब है। प्रश्न उठता है इसका निर्धारण कैसे किया जाय? भारतवर्ष मे अल्पसंख्यक की सूची मे मूल रूप से मुस्लिम;पारसी और क्रिश्च्यिन है। भारत का बहुसंख्यक वर्ग हिन्दू है। यदि हम हिन्दू बहुसंख्यको की तुलना पारसी और क्रिश्च्यिन अल्पसंख्यकों से करते है तो हिन्दू बहुसंख्यक आर्थिक और सामाजिक स्तर पर पारसी और क्रिश्च्यिन अल्पसंख्यकों की तुलना मे कही नही ठहरते हैं। आज पारसी और क्रिश्च्यिन अल्पसंख्यक आर्थिक शैक्षिक और सामाजिक स्तर पर देश के कुछ गिने चुने उच्च सामाजिक परिवारों मे सामिल हैं। रही बात मुस्लिम अल्पसंख्यकों की तो वे जरूर हिन्दुओं से पिछडे हैं; लेकिन हिन्दू समुदाय के कुछ ऐसे वर्ग है जिनकी आर्थिक शैक्षिक और सामाजिक स्थिति मुस्लिम अल्पसंख्यकों से भी खराब है। यदि आप उत्तर भारत के किसी गांव मे जांय तो पायेगे कि अनुसूचित जाति के लोगों की बस्ती आमतौर पर गांव मे दक्षिण दिशा मे पायी जायेगी। जब आप उस बस्ती मे प्रवेश करेगें तो नंगे धूल धूसरित बच्चे इधर उधर दौडते मिल जायेगें। इस बस्ती मे आमतौर पर घास फूस और छप्पर के कच्चे घर दिखेंगे। अनुसूचित वर्ग की बस्तियों मे यदि कही पक्का मकान दिखेगा तो वह तो वह मूलत:इन्दिरा आवास योजना से बना होगा। कही इक्का दुक्का मकान ही लोग अपने संसाधनों से निर्मित कराये होगें। 12 साल का बच्चा स्कूल नही जायेगा पूछने पर उसका बाप कहेगा कि बेटे को पढायें या मजदूरी कराकर परिवार का पेट पालें। आजके तीस साल पहले जिसके पास फटी लुंग्गी थी आज भी उसके पास फटी लुंगी ही है। पहले वह अपनी मेहनत मजदूरी के बल पर अपनी जीविका चलाता था आज नरेगा;लाल कार्ड और पेंशन से अपने को जीवित रखे हुए है। अब आप किसी मुस्लिम आबादी वाले गांव मे जायें आपको बडी बडी बहुमंजिले भवन दिखेंगे। पूछने पर पता चलेगा अमुक घर चौधरी अब्दुल अहद का है दूसरा चौधरी अब्दुल समद का है तीसरा चौधरी अब्दुल सलाम का है। सभी मकान कई लाख के बने होंगे। पता करने पर पता चलेगा किसी का बेटा मुम्बई मे है तो किसी का बेटा दुबई मे है। बच्चे यहां भी दौड रहे होंगे लेकिन भूखे और नंगें नही। बच्चे यहां भी नही पढ रहे होंगे लेकिन धनाभाव के कारण नही बल्कि सोचे के कारण। यह सही है कि मुस्लिम समुदाय मे भी काफी लोग गरीब है लेकिन जब आप तुलना मुस्लिम और अनुसूचित जाति का करेगे तो शायद आप पायेगें कि भारत से संसाधनों पर पहला हम अल्पसंख्यकों का नही; अनुसूचित वर्ग का होना चाहिये। ज्याद उपयुक्त होगा कि यह कहा जाय कि उस पर किसी जाति या वर्ग का नही बल्कि गरीबों का होना चाहिए; लेकिन समस्या यह है कि गरीब की कोई जाति नही है; उसका कोई वर्ग नही है उसका कोई समूह नही है जो संगठित होकर मतदान करता हो। इसलिये गरीवों के बजाय अल्प संख्यकों को पहला हक दो जिससे वह ओट बैंक मे परिवर्तित किया जा सके। सहानुभूति अनुसूचित वर्ग के साथ है लेकिन क्या करें वह तो वोट बैंक किसी दूसरी पार्टी का है;जो टूटने का नाम ही नही ले रहा है। आज अल्पसंख्यकों को देश के संसाधनों पर पहला हक दो बाद मे देखा जायेगा। यह है वोट की राजनीति जिसका राजनीति से कुछ लेना देना नही है। राजनीति कहती है:-
मुखिया मुख सो चाहिये खान पान को एक।
पाले पोसे सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।
देश का राजा परिवार की मुखिया की तरह होता है जिसका दायित्व होता है कि वह अपने सभी परिवारी जनों को समान भाव से देखे;लेकिन जब वह धृतराष्ट की तरह कार्य करने लगता है तो उसका वही हस्र होता है जो द्वापर मे कौरवों का हुआ।
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