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बरेली मे टैफिक पुलिसे के जवानो द्वारा अपने पुलिस अधीक्षक यातायात के साथ की गई बदसलूकी को बहुत कोसा जा रहा है। इस कार्य मे मीडिया से लेकर आम जन सभी सामिल हैं। जहां मीडिया मे सम्पादकीय लिखे जा रहे है वही गली कूचों मे चाय की दूकानों पर इस वात की निन्दा की जा रही है। लेकिन समाज के लोग इस बात पर खुल कर विचार करने को तैयार नही है कि आखिर इस स्थित के लिये जिम्मेदार कौन है। यदि पुलिस की कार्य प्रणाली के वारे मे आम जन से चर्चा करे तो इस बात को सभी एक स्वर से स्वीकार करते है कि पुलिस विभाग मे थाने विकते है। थानो पर तैनाती के लिये थानाध्यक्ष बाकायदे बोली लगाते है। हर महीने थानाध्यक्ष पुलिस कप्तान को बोली की रकम पहुचाता है। अब लोग कहेगे कि इस भ्रष्टाचार के लिये पुलिस कप्तान जिम्मेदार हैं तो यह बात केवल एक हद तक सही है क्योंकि कप्तान की पोस्टिंग फ्री मे थोडे न होती है। उसे पोस्टिंग के लिये उपर पैसे देने होते हैं। अब चर्चा केवल नीचे के भ्रष्टाचार के रोक पर ही क्यों होती है। उपर के भ्रष्टाचार पर केवल चर्चा होती है लेकिन एक भी उपर वाले पर कार्यवाही हुई क्या । समाज को टुकडों मे देखने वाले यह नही सोचते कि समाज के एक अंग का प्रभाव दूसरे पर पडे बिना नही रह सकता है यदि लेखपाल या ग्राम पंचायत अधिकारी अपने बच्चों को अच्छे कालेज मे पढाता है तो आप कैसे अपेक्षा करते है कि स्कूल का अध्यापक या सिपाही इस मोह से कैसे मुक्त रह सकता है। समाज को टुकडों मे देखने की प्रबृति छोडनी होगी जब तक सभी लोग नही सुधरेगें किसी एक से अपेक्षा करना बेनामी है।
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