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मै दिनांक 4 जुलाई को दैनिक समाचार पत्र दैनिक जागरण मे एक लेख पढी। यह लेख देश के एक सम्मानित लेखक का है। लेख का शीर्षक है संकीर्ण दुनिया मे कैद भजपा। लेख पढ कर अजीब लगा। लेख के दो हिस्से है। एक मे केन्द्र और राज्यों के सम्बन्धों की विवेचना की गई है और दूसरे मे मोदी को प्रधानमंत्री पद के सम्भावित उम्मीदवार के रूप मे प्रस्तुत करने पर विवेचना की गई है। विवेचना मे लेखक ने कहा कि“गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने धर्मनिरपेक्षता के सवाल को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पंगा लिया और फिर संघ ने हिंदुत्व कार्ड खेल दिया। दोनों ने मिलकर भाजपा के सत्ता में लौटने की संभावनाओं को मटियामेट कर दिया। जिस व्यक्ति पर गुजरात दंगों का दाग लगा हुआ है उसे भारत के अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जा सकता और न ही संस्कृति के झूठे पर्दे में हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों के असली चेहरे को छुपाया जा सकता है। संघ प्रमुख भागवत ने सवाल किया है कि हिंदूवादी प्रधानमंत्री को लेकर परेशानी क्या है? यह सवाल खुद-ब-खुद बता देता है कि भाजपा किस तरह अपनी ही संकीर्ण दुनिया में कैद है और पंथनिरपेक्ष भारत की वास्तविकता स्वीकार करने को तैयार नहीं है।’’
लेखक भारतीय बौद्धिक जगत के महान हस्ती माने जाते है लेकिन लिखते समय पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के कारण लेख मे विरोधाभास है। लेखक का कहना है कि जिस व्यक्ति पर गुजरात दंगों का दाग लगा हुआ है उसे भारत के अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस व्यक्ति पर 1984 के दंगों का दाग था उसे भारत ने तत्काल भारत का प्रधान मत्री बना दिया क्यों। 1984 के दंगों को इस लिये भुला दिया जाना चाहिऐ क्योंकि वह एक प्रधानमंत्री की हत्या के बाद फैला था और गुजरात दंगा आम जनों की हत्या के बाद या इस कारण कि सिक्ख राजनैतिक तौर पर मतदान मे निर्णायक नही है या यह दंगा कांग्रेस के जमाने मे हुआ जो कि तथा कथित एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है और भारतीय जनता पार्टी कथित तौर पर एक सांप्रदायिक पार्टी है। महान लोगों से देश निरपेक्ष विश्लेषण की अपेक्षा रखता है। इन्डिया टुडे नीलसन द्वारा जो राष्टीय सर्वे कराया गया उसके अनुसार 45 प्रतिशत लोगों ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप मे पसन्द किया।जबकि नितीश कुमार जी को केवल 22 प्रतिशत लोगों ने। जिस गुजरात मे हुए दंगों की दुहाई देकर मोदी को सांप्रदायिक कहा जाता है उसी गुजरात के विगत एक दशक से वे मुख्यमंत्री है। जब गुजरात को कोई परेशानी नही है तो अन्य लोग इसे क्यों वार वार दोहराकर इसे जीवित रखना चाहते है। इस सम्बन्ध मे मै एक कहानी सुनाना चाहती हू। किसी गांव मे एक आदमी रहता था। किसी कारण वश उसे टीवी हो गई। काफी दवा कराने के वाद वह ठीक हो गया। एक दिन अपने लेगों के साथ वह बैठक कर रहा था अचानक एक व्यक्ति आता है और उससे पूछता है कि क्या आपकी टीवी ठीक हो गई। साथ वैठे लोगों को जब यह पता चला कि उनके अधिकारी को पूर्व मे टीवी थी तो वे लोग उससे दूर दूर रहने लगे। क्या देश हित मे जिसे देश भूलना चाहता है उसे स्वाहित मे जीवित रखा जाय।
केन्द्र और राज्यों के सम्बन्धों मे “केंद्र-राज्य संबंधों पर बना सरकारिया आयोग पुराना पड़ चुका है। इसकी रिपोर्ट दो दशक पहले आई थी। अगर उस वक्त इसकी सिफारिशों को लागू कर दिया गया होता तो शायद आज राज्यों की ओर से अधिक अधिकार की मांग नहीं उठती, लेकिन अब केंद्र को अपने हिस्से की सूची में कटौती करनी है। यह काम उसे अपनी स्वेच्छा से या फिर संविधान में संशोधन के जरिये करना होगा। प्रतिरक्षा, विदेश, मुद्रा और वित्तीय योजना को छोड़कर बाकी कोई विषय उसे अपने पास नहीं रखना चाहिए। एक बार विकेंद्रीकरण हो जाए, तो फिर यह पक्का करना होगा कि वह राज्यों की राजधानी से जिला और फिर पंचायत स्तर तक पहुंचे, ताकि शासन में जनता की सीधी भागीदारी हो सके। भाजपा के सामने मुश्किलें ज्यादा हैं, क्योंकि अनेक राज्यों में उसकी सरकारें हैं। मोदी को छोड़ भी दें तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं। इन सबका कद इतना बड़ा है कि इन्हें काबू में रखना मुश्किल भरा काम है। इस मोर्चे पर कांग्रेस के सामने नाम मात्र की परेशानी है। सोनिया गांधी के पास पूरा अधिकार है। फिर यह भी तय हो चुका है कि उनके बेटे राहुल गांधी को नंबर दो बनाया जाना चाहिए।”
लेखक का कथन कि देश मे सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया जाय। लेकिन भारतीय जनता पार्टी जिसमे क्षेत्रीय नेता शक्तिशाली है सत्ता विकेन्द्रीक़त है वह स्वीकार नही है जबकि कांग्रेस की एकात्मक सत्ता स्वीकार है। अजीब हिप्पोक्रेसी है।
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